पुस्तक है चार्वाक के वारिस समाज, संस्कृति और सियासत पर प्रश्नवाचक। इसके लेखक हैं सुभाष गाताडे। विदित हो विचार जब जनसमुदाय द्वारा ग्रहण किए जाते हैं, तब वह एक भौतिक शक्ति बन जाते हैं। कितनी दुरूस्त बात कही थी मार्क्स ने। अलबत्ता यह स्थिति बिल्कुल विपरीत अन्दाज़ में हमारे सामने नमूदार हो रही है। जनसमुदाय उद्वेलित भी है, आन्दोलित भी है, एक भौतिक ताकत के तौर पर संगठित रूप में उपस्थित भी है, फर्क बस इतना ही है कि उसके ज़हन में मानव मुक्ति का फलसफा नहीं बल्कि ‘हम’ और ‘वे’ की वह सियासत है, जिसमें धर्म सत्ता, पूंजी सत्ता और राज्य सत्ता के अपवित्र कहे जा सकने वाले गठबंधन के लिए लाल कालीन बिछी है और यह सिलसिला महज दक्षिण एशिया के इस हिस्से तक सीमित नहीं है। प्रस्तुत किताब इन्हीं सरोकारों को मददेनज़र रखते हुए लिखी गयी है, मगर उसका फोकस बहुत सीमित है। वह भारत के समाज, संस्कृति और सियासत से रूबरू होने की एक कोशिश है। पुस्तक पठनीय है हीं, संग्रहणीय भी। यह पुस्तक की पृष्ठ संख्या है 314। इसके प्रकाशक हैं ऑथर्स प्राइड पब्लिशर प्रा. लि., 55-ए, पॉकेट – डी, एस.एफ.एस., मयूर विहार फेज़-III, दिल्ली 110096
पुस्तक समीक्षा
*पुस्तक चार्वाक*
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