ज्ञान से हीं अज्ञानी तपस्वी सिद्धार्थ बना बुद्ध
कर्म से मिली सफलता की वजह से तपस्वी कर्मवीर बुद्ध को लोगों ने दी भगवान की संज्ञा
अज्ञानी सिद्धार्थ गौतम ! बुद्धि से बने बुद्ध
उनकी कर्म की होती है पूजा
बोधगया, गया : पहले उरूवेला के नाम से जाना जाने वाला सुदूरवर्ती घनघोर जंगली इलाका अब वही बोधगया के नाम से जाना जाता है। बिहार प्रदेश स्थित गया जिले के अति प्राचीन सुदूरवर्ती घनघोर जंगल के उरूवेला क्षेत्र में एक पीपल वृक्ष की छांव तले वैशाख पूर्णिमा की रात में सिद्धार्थ गौतम को ज्ञान की बोध हुई और रातोरात, अपने कठोर त्याग- तपस्या के बल पर सत्य के रूप में
अज्ञानी सिद्धार्थ गौतम ! ज्ञान से बने बुद्ध Ignorant Siddhartha Gautama ! Buddha made of wisdom |
ज्ञान प्राप्ति के उपरांत ज्ञानी बुद्ध ने कहा-
इदं खो पन भिक्खवे !
दुक्खं अरियसच्चं-
जातिपि दुक्खा,
जरापि दुक्खा,
व्याधिपि दुक्खो,
मरणम्पि दुक्खं
अप्पियेहि सम्पयोगो दुक्खो,
पियेहि विप्पयोगो दुक्खो,
यम्मपिच्छं न लभति तम्पि दुक्खं,
संखित्तेन पञ्चुपादानक्खन्धा दुक्खा
भिक्खुओ ! यह दुःख अरिय सत्य है- जन्म भी दुःख है, बुढापा भी दुःख है, रोग भी दुःख है, मृत्यु भी दुःख है, अप्रियों से मिलन दुःख है, प्रियों से वियोग दुःख है। संक्षेप में पांच उपादान- स्कंध दुःख हैं।विपश्यना आचार्य सत्यनारायण गुरूजी ने ‘दुःख है’ – विषय पर विश्लेषण करते हुए कहा है- “जन्म का आरंभ ही यानी जन्म ही दुःख से शुरू होता है। इसका मध्य भी व्याधि और जरा लिए हुए दुःख ही है। इसका अंत भी मृत्यु के रूप में दुःख ही है और जीवन भर दुःखों का प्रवाह चलते ही रहता है।
परिवर्तनशीलता ही प्रकृति का स्वभाव है। गतिमान रहना ही जगत का गुण है, बदलते रहना ही जीवन का धर्म है और यही हमारा प्रमुख दुःख गर्भावस्था की अनवांछित स्थिति में महीनों पड़े रहने के बाद भी जब हम इस दुनिया में प्रवेश करते हैं तो यह सर्वथा बदली हुई नयी स्थिति हमारे लिए दुःखद ही होती है। हम रोते हुए ही जन्म लेते हैं; सचमुच जन्म लेना दुःख ही है। जब हमारा स्वस्थ शरीर अस्वस्थता में बदल जाता है तब किसी भी रोग से रुग्ण क्यों न हों, हम दुःखी ही होते हैं; सचमुच बीमार होना दुःख ही है।
कठोर त्याग- तपस्या के बल पर अज्ञानी सिद्धार्थ गौतम बने बुद्ध |
जब युवा अवस्था जीर्ण होकर बुढ़ापे में बदल जाती है तब हम दुःखी ही होते हैं, सचमुच बुढ़ापा दुःख ही है। आयु पूरी होने पर जीवन, मृत्यु में बदल जाता है तब हम दुःखी ही होते हैं, सचमुच मृत्यु दुःख ही तो है। जन्म लेने का दुःख, बीमार होने का दुःख, जरा-जीर्ण होने का दुःख, मरने का दुःख, इन दुःखों से कोई भी तो नहीं बचा।
सभी जीवित प्राणी इन दुःखों में से गुजरते ही हैं। यह सब दुःख प्रकृति के बदलते रहने वाले स्वभाव के फलस्वरूप ही है। यह बदलने वाला क्रम एक क्षण के लिए भी रुकता नहीं, प्रतिक्षण कालचक्र तीव्र गति से चलायमान ही रहता है। इस तीव्र काल-प्रवाह में कोई व्यक्ति, कोई वस्तु, कोई स्थिति दो क्षण एक जैसी रह ही नहीं सकती।
भावी भव बनता रहता है, भव भूत बनता रहता है, अनागत वर्तमान बनता रहता है, वर्तमान अतीत बनता रहता है। जो नहीं है, वह पैदा होता रहता है, जो है वह नष्ट होता रहता है। परिवर्तनशीलता का यह क्रम अबाधगति से प्रवहमान रहता ही है।
यही कारण है कि जिस वर्तमान को हम अपनी मुट्ठी में भींचकर रोक रखना चाहते हैं, वह हजार कोशिशों के बावजूद भी हमारे देखते-देखते हाथ से छूट ही जाता है।
वर्तमान सुख को प्रिय मानकर हम जितने जोरों से उसे पकड़े रहना चाहते हैं, छूटने पर वह उतना ही दुःखदायी साबित होता है। इसी कारण जीवन भर प्रिय वस्तुओं के छूटने पर हम व्याकुल होते रहते हैं। प्रिय व्यक्तियों के बिछुड़ने पर विलाप करते रहते हैं। प्रिय स्थितियों के बदल जाने पर सिर धुनते रहते हैं, प्रिय का बिछोह होता ही रहता है और इस बिछोह की पीड़ा हमें व्यथित करती ही रहती है, सचमुच प्रिय का वियोग बड़ा दुःखदायी होता है।
जैसे ही प्रिय स्थिति का वियोग होता है, वैसे ही अप्रिय स्थिति का संयोग होता है, जब हम प्रिय का वियोग रोक सकने में असमर्थ हैं तो अप्रिय का संयोग रोक सकने में भी सर्वथा असमर्थ ही हैं। हजार अवांछित होते हुए भी अप्रिय वस्तु, व्यक्ति अथवा स्थिति का संयोग होता ही रहता है। मनचाही बात होती नहीं, अनचाही बात हो जाती है।
दोनों ही समानरूप से पीड़ाजनक हैं। जैसे प्रिय का वियोग, वैसे ही अप्रिय का संयोग भी सचमुच दुःखदायी ही होता है। दुःख का एक और पीड़ाजनक स्वरूप है – असंतोष।
हमें जिस वर्तमान स्थिति से असंतोष हो उठता है, वह हमें काटने लगती है। और यह असंतोष इसलिए पैदा होता है कि हमें उस स्थिति की कामना होने लगती है, जो कि विद्यमान नहीं है। भविष्य के प्रति उत्पन्न हुई कामना, वर्तमान के प्रति असंतोष पैदा करती रही है।अप्राप्त के प्रति जगी हुई कामना, प्राप्त के प्रति असंतोष पैदा करती रही है।
यह कामना जितनी- जितनी तीव्र होगी, वर्तमान के प्रति हमारा असंतोष भी उतना-उतना ही तीव्र हो उठेगा। यह असंतोष जितना-जितना तीव्र होगा, दुःख भी उतना-उतना ही अधिक सताने वाला होगा। जब तक कामनापूर्ति न होगी, तब तक असंतोष रहेगा और जब तक असंतोष रहेगा, तब तक दुःख ही दुःख रहेगा, तो क्या कामना की पूर्ति कभी हो सकती है? धन-वैभव के अंबार लगे होने पर भी मेरी स्थिति मेरे चार भाइयों के बराबर की न रहे, बल्कि उससे जरा ऊंची होनी ही चाहिए।
मेरी स्थिति मेरे धनी पड़ोसी के बराबर की न रहे, बल्कि उससे जरा ऊंची होनी ही चाहिए। मुझे अन्य सभी से कुछ तो ऊंचा होना ही चाहिए। इस कामना का कभी अंत नहीं आता। जहां देख लिया कि मेरा एक भाई या पड़ोसी या परिचित मुझसे ऊंचा उठ गया है, वहीं अपने सारे सुखों के ढेर फीके लगने लगते हैं और मैं ईर्ष्या के दुःख से तिलमिलाने लगता हूँ, मैं किसी से छोटा नहीं रह सकता।
सबसे ऊंचा रहने की यह कामना, किसी से भी ओछा न रहने की यह कामना, क्या कभी पूरी हुई है? और कामनाओं की इस होड़भरी घुड़दौड़ के रहते हुए क्या कभी किसी का दुःख दूर हुआ है? सचमुच तृष्णा का पूरा न होना दुःख ही दुःख है। यह तृष्णा जब बढ़ती है तो गहरी लालसा का रूप धारण कर लेती है।
बड़ी आसक्ति होने लगती है, बड़ा चिपकाव होने लगता है; आसक्ति या चिपकाव जैसा कोई दुःख नहीं। सबसे बड़ा चिपकाव, सबसे बड़ी आसक्ति हमें अपने आप के साथ होने लगती है। “मैं-मेरे” के साथ होने लगती है, अस्मिताभाव के साथ, अहंभाव के साथ, ममभाव के साथ यह जो अत्यंत सूक्ष्म परतु दृढ़ आसक्ति पैदा हो जाती है, वही तो अत्यंत सूक्ष्म अवस्था में हमारे भीतर समायी हुई गहरी पीड़ा है।
यह “मैं-मेरे” का भाव किसके प्रति होता है? या तो इस शरीर-प्रपंच के प्रति अथवा इस चित्त-प्रपंच के प्रति इन्हें ही मैं मेरा” मानकर हम व्याकुल होते रहते हैं। इस भौतिक शरीर-प्रपंच को ही पुराने जमाने की भाषा में रूप-स्कंध कहते थे।
जानने, पहचानने, संवेदनशील होने और प्रतिक्रिया करने वाले चित्त के इन चारों समूहों को ही नाम-स्कंध कहते थे। एक रूप-स्कंध और चार नाम-स्कंध, इन पांचों के मिलने से जो जीवनधारा बह रही है, उसे ही पंच-स्कंध कहा जाता था। तन और मन की इस पंचस्कंधी जीवन-धारा को ही तो हम ‘मैं’ और ‘मेरा’ मानते रहते हैं। इन पांचों के प्रति जो आसक्ति हो जाती है, उसे ही उन दिनों उपादान कहते थे।
उपादान का अर्थ आसक्ति ही है; जहां आसक्ति है, वहां दुःख है, अतः पंचस्कंधों के प्रति हमारा यह उपादान दुःख ही है। अन्तर्मुखी होकर जब अपने ही भीतर की गहराइयों में सत्य का स्वयं दर्शन करने लगेंगे तब एक बात और स्पष्ट होने लगेगी कि हमारे उपादान के कारण ही इन रूप और नाम स्कंधों का प्रतिक्षण प्रजनन हो रहा है। अतः चाहे यह कहें कि नाम और रूप के पंच-स्कंधों के प्रति हमारा उपादान अर्थात चिपकाव ही दुःख है अथवा यह कहें कि हमारे उपादान के फलस्वरूप उत्पन्न होते रहने वाली यह पंचस्कंधमयी जीवनधारा ही दुःख है, बात एक ही है।
जहां तन और मन के प्रति आसक्ति है, वहां दुःख है। जहां आसक्ति से उत्पन्न होते रहने वाला तन और मन है वहां दुःख ही है। अपने शरीर को अथवा अपनी चित्तधारा को ‘मैं-मेरा’ मानकर जब हम इसके साथ चिपकाव करने लगते हैं तब इन दोनों के अनित्य स्वभाव के कारण हम सदा भविष्य के प्रति आतंकित, आशंकित ही रहते हैं।
कल ‘मुझे क्या हो जायगा? यह जो ‘मेरा’ है इसे कल क्या हो जायगा? कहीं यह ‘मैं’ और यह ‘मेरा’ कल नष्ट तो नहीं हो जायगा? यह आशंका हमें चिंतित, भयभीत बनाए रखती है। भविष्य में क्या होगा, कुछ भी तो निश्चित नहीं है? यदि कुछ निश्चित है तो केवल मृत्यु ही है।
मृत्यु आने पर इस ‘मैं’ और ‘मेरे’ का क्या होगा? इस प्रकार अपने आप को सदा अरक्षित महसूस करते हुए हम भयभीत ही रहते हैं । जन्म-जन्मांतरों तक बहती रहने वाली शरीर और चित्त-धारा की यह भयावह
अनित्य रचना दुःख ही है और इसके प्रति आसक्त हो उठना तो सचमुच घोर दुःख ही है। अनेक जीवनों की बात छोड़ भी दें तो इस एक जन्म का आरंभ ही यानी जन्म ही दुःख से शुरू होता है।
इसका मध्य भी व्याधि और जरा लिए हुए दुःख ही है। इसका अंत भी मृत्यु के रूप में दुःख ही है और जीवन भर दुःखों का प्रवाह चलते ही रहता है। जब किसी पीड़ा से मन संतप्त हो उठता है, तब शोक से भरा हुआ दुःख होता है।
जब यह शोक बढ़ता है और असह्य हो उठता है तब रोदन-क्रंदन रूपी परिदेव का दुःख होता है। शरीर की पीड़ा का दुःख तो दुःख है ही, इससे उत्पन्न होने वाला चित्त का उत्पीड़न भी दौर्मनस्यता का दुःख है। जब अपने शरीर या मन के दुःखों को प्रकट नहीं कर सकते और भीतर-भीतर धुटन से भर उठते हैं तब यह उपायास का दुःख और भी भयंकर होता है। इस प्रकार दुःख ही दुःख का समुंदर लहराता रहता है- चारों ओर जन्म का दुःख, रोग का दुःख, बुढ़ापे का दुःख, मृत्यु का दुःख, दुःख आने का दुःख, सुख जाने का दुःख, भाव को सुरक्षित रखने की चिंताओं का दुःख, अभाव के खोखलेपन का दुःख, अपूर्णता का दुःख, क्रोध का दुःख, ईर्ष्या का दुःख, द्वेष का दुःख, अपमान का दुःख, निराशा का दुःख, भविष्य की अशंका का दुःख, अतीत की यादों का दुःख, वर्तमान की अतृप्ति-असंतुष्टि का दुःख, धनवान के लिए अस्वस्थता का दुःख, स्वस्थ के लिए निर्धनता का दुःख, इत्यादि इत्यादि कितने दुःख लगे हैं हमारे साथ! कोई है जो इन्हें गिनकर बता सके? भिन्न-भिन्न प्रकार के ये दुनियावी दुःख सभी व्यक्तियों को कमोवेश भुगतने ही पड़ते है; जो अपने आपको खूब स्वस्थ सुखी मान रहा है, वह वस्तुतः दुःखी होते हुए भी दुःख को स्वीकार करना नहीं चाहता, दुःख की ओर झांककर देखना भी नहीं चाहता।
शुतुर्मुर्ग की भांति सच्चाई से दूर रहना चाहता है और अपने आप को झूठ की प्रवंचना में भरमाए रखना चाहता है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है सुखी से सुखी व्यक्ति भी अकेला रह नहीं सकता। अपने आप को सुखी कहने वाला वह धनवान व्यक्ति भी चारों ओर निर्धनता से पीड़ित लोगों के समाज में ही रहता है, जहां कि अन्य लोग उससे ईर्ष्या करते हैं, द्वेष करते हैं, घृणा करते हैं, उसे आशंकित-आतंकित बनाए रखते हैं। वर्ग संघर्ष होता है अथवा होने का भय बना रहता है।
रक्त-विप्लव होता है अथवा होने की आशंका बनी रहती है। ऐसे उत्तेजित-उद्वेलित वातावरण को जो सुख मानता है, वह अपने आप को धोखा ही दे रहा है। वस्तुतः वह भी दुःखी तो है ही। सच यह है कि दुःख से कोई नहीं बचा। चाहे कोई किसी भी संप्रदाय-समाज, जाति-वर्ण, रंग-रूप, कद-आकार, वेश-भूषा, बोली-भाषा अथवा देश-काल का व्यक्ति क्यों न हो, चाहे कोई राजा हो या रंक, पढ़ा-लिखा हो या अनपढ़, तथाकथित आस्तिक हो अथवा नास्तिक: उपरोक्त प्रकार के दुःखों का शिकार तो होते ही रहता है। यह समस्या सार्वजनीन है, सार्वकालिक है, सार्वदेशिक – है अतः इसका समाधान भी सार्वजनीन, सार्वकालिक और सार्वदेशिक ही होना चाहिए।
ऐसा होना चाहिए जिसे स्वीकार करने के लिए अथवा जिसका प्रयोग करने के लिए किसी संप्रदाय-विशेष में बँध जाना अनिवार्य न हो। इस सार्वजनीन रोग का ऐसा इलाज होना चाहिए, जो सबके लिए समान रूप से कल्याणकारी भी हो और ग्रहण करने योग्य भी हो।ऐसे संप्रदाय-विहीन, संकीर्णता-विहीन रास्ते की खोज के लिए हमें सारे अंधविश्वासों से, लुभावने चमत्कारों और भ्रामक कल्पनाओं से बाहर निकल कर वैज्ञानिक ढंग से सत्य की स्वयं खोज करनी होगी, सच्चाई का स्वयं साक्षात्कार करना होगा। दुःख की सच्चाई का ही नहीं, बल्कि दुःख के सभी कारणों की सच्चाई का भी।
तदनन्तर उन कारणों को दूर करने का कोई वैज्ञानिक उपाय जानकर उसका उपयोग करते हुए इन कारणों का स्वयं ही निराकरण करना होगा तभी दुःख का भी निराकरण हो सकेगा। तभी सच्ची सुख-शांति प्राप्त हो सकेगी, तभी सच्चा मंगल उपलब्ध हो सकेगा।
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