कविता
कोरोना अब तुम जाओ क़हर ना बरप्पाओ
ऐ अदृश्य कोरोना !
तूने ये क्या कर दिया
दुनियाँ भर में सिर्फ रोना- धोना है
तेरे अदृश्य वायरस का दृश्य भयावह
खुले हैं केवल अस्पताल
मंदिर- मस्जिद सब बंद
लोग बंद हैं घरों में
गुरुद्वारा में भी जड़े हैं ताले
धार्मिक क्षेत्र भी अछूता नहीं
वहाँ भी कोरोना फैलने की खतरे
अस्पतालों में
कोरोना पॉजेटिवो का ढेर
भरे हैं बेड, ऑक्सीजन की अफ़रा- तफ़री
वहाँ है आर- पार की ज़िंदगी
या
मौत की कर्राहती दास्ताँ
हँसी- खुशी ढल गया
ढलते सूर्य की तरह
उगते सूर्य की तरह
सुबह- सबेरे मंदिर में भी कोई दीया जलाने वाला नहीं
मस्जिद में कोई अजानी नहीं
सभी जगह सन्नाटा
बस, है तो सिर्फ कोहराम
श्मशान के किनारे
जिधर देखो उधर ही कोरोना की रोना
राम का नाम सत्य परंतु कोरोना तेरा नहीं
कोरोना! तू है बेवफ़ा
अल्ला- ईश्वर राम में तो है वफ़ा
वे करते नहीं ऐसा
विश्वकर्मा बाबा तो दुनिया को चलाते समेट कर
वायरस तो चलता उत्पात मचाते झकझोर कर
कोरोना तूने ये क्या कर दिया
वैज्ञानिक लोग चाँद पर जाने की स्वप्न
देख रहे थे
तो कोई आसमां पर रहने का ज़मीं खरीद रहा था
परंतु सूक्ष्म कोरोनावायरस ने
सारे सपने को एक झटके में
शीशे की तरह तोड़ दिया
टूट कर बिखर गए सपनें
दुनिया भर के लोग जीवन बचाने में
जुटे हैं
क्योंकि जान है तभी तो जहान है
कोरोना की दूसरी लहर का प्रकोप
और भी भयावह- भयानक
कोरोना का विकराल रूप ने
सब बदल दिया
राजा हो या हो प्रजा
सब घरों में क़ैद
उससे बचना जरूरी
क्योंकि कोरोना महामारी का डर- भय
संक्रमण है खतरे की घंटी
कब- कहाँ कैसे मँडरा जाय
यही ख़ौफ़
सांसद, विधायक, जनप्रतिनिधिगण
दुबके अपने घरों में
विकट संकट के दौर में भी
वे लेते नहीं किसी की सुध
इस महा दुख में कोई नहीं किसे के साथ
सिर्फ कहने भर का है सब
पर कोरोना काल का साथी कोई नहीं
जनता भगवान भरोसे
रूखा – सुखा खाकर
जीवन काटे
क्योंकि आगे कोरोना का डर
और पीछे ऑक्सीजन नहीं मिलने का भय
जीवन और मौत के बीच सीधा जंग
कोई कफ़न लेकर दफ़्न हो गया
तो कोई बेड पर बेसुध पड़ा मौत की गोद में झूलता
डॉक्टर – प्रशासन बचाने की होड़ में जुटे
फिर भी जीवन का तार बेज़ार हो टूटे
सरकार देती गाइडलाइन और मुफ्त वैक्सीन
बस, एक ही भरोसा
सृष्टि रचैता बाबा विश्वकर्मा की
जीवन या मौत ! उन्हीं के हाथ में
कोरोना की क़हर ! अब रूक जा
बहुत हुआ ठहर जा ! कलियुगी कोरोना
अब ना सताओ
थोड़ा लोगों को मुस्कुराने भी दो
विरानगी को अब थोड़ा खिलखिलाने भी दो
टूटे सपने और दर्दे गम को भूलाने भी तो दो
तुम थम जाओ कोरोना
ले लो किनारा
रेत के किनारे
जहाँ किसी को खतरा ना हो
तुम रहो रेत में लिपट कर
देह को छोड़ दो,
दूरी बना के चलेंगे, हम सब
मान लो कहना ! जा, अब चल जा
क़हर ना बरप्पा
अब शांत हो जा
दुनिया को शांति दे दो
बस, और क्या
कोरोना जाओ ! दुनिया को शांति से जीने दो
➖अक्षरजीवी,
अशोक कुमार अंज
वर्ल्ड रिकार्डी जर्नलिस्ट
लेखक-कवि- फिल्मी पत्रकार बाबू
वजीरगंज, गया, इंडिया