Article: Ganesh Dutt, the great leader of Bihar

 बिहार जनक महा पुरोधा गणेश दत्त

➖आचार्य गोपालजी, बरबीघा

ब्रिटिश राज के दौरान एक भारतीय वकील, शिक्षाविद् और प्रशासक  रहे सर गणेश दत्त का जन्म 13 जनवरी 1968 ईस्वी को नालंदा जिले के हरनौत प्रखंड के गोनामा पंचायत स्थित छतियाना गांव में हुआ था।

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उन्होंने ब्रिटेन से भारत की स्वतंत्रता से पहले बिहार और उड़ीसा राज्य में शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर बनाने के लिए  अथक प्रयास किया। उन्होंने पटना इंस्टीट्यूट के रेडियम संस्थान , दरभंगा मेडिकल कॉलेज और अस्पताल , पीएमसीएच, आयुर्वेद कॉलेज ,तिब्बती कॉलेज ,रांची सैनिटोरियम, और अंधों और मूक बधिरों के लिए शैक्षणिक संस्थानों के विकास के लिए अपनी कमाई और व्यक्तिगत संपत्ति से उदार दान दिया । उनके जीवन और कार्यों पर आधारित एक लघु फिल्म प्रकाश झा द्वारा बनाई गई थी। इतने अच्छे व्यक्तित्व के व्यक्ति होने के बावजूद बहुत कम लोग उनके बारे में जानते हैं ।

 सर गणेश दत्त ब्रिटिश शासन के तहत बिहार और उड़ीसा की स्थानीय स्व-सरकार के मंत्री थे, और बिहार प्रांत के प्रमुख सार्वजनिक हस्तियों में से एक थे। गणेश प्रसाद नारायण सिन्हा की पहल पर पूर्वी भारत के सबसे पुराने मनोवैज्ञानिक सेवा केंद्रों में से एक, पटना विश्वविद्यालय के मनोवैज्ञानिक अनुसंधान और सेवा संस्थान को शुरू करने के लिए सर गणेश दत्ता ने राजनीतिक संन्यास के बाद पटना में बनाए गए अपना घर कृष्णा कुंज जहां वह अंतिम समय में रहा करते थे, पटना विश्वविद्यालय को दान कर दिया  ।  उन्होंने राज्य के अनाथों, विधवाओं और स्कूलों को लाभ पहुंचाने के लिए विभिन्न धर्मार्थों को देने के लिए 14 साल तक हर महीने अपने वेतन का लगभग तीन-चौथाई हिस्सा बचाया।उस समय मंत्री को 4000 वेतन मिलता था उसमें से एक हजार प्रतिमाह अपने खर्च के लिए रख कर तीन हजार 14 वर्षों तक दान देकर उन्होंने एक बड़ी राशि जमा किया गया ।

मंत्री के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान उन्होंने अपने अधिकांश वेतन को धर्मार्थ और शैक्षिक उद्देश्यों के लिए निर्धारित किया। उन्होंने 30 नवंबर 1931 को पटना विश्वविद्यालय के लिए 100,000 रुपए और 27 मई 1933 को 200,000 रुपए की व्यवस्था की। इस बंदोबस्ती के साथ पटना विश्वविद्यालय में सर गणेश दत्त सिंह का ट्रस्ट फंड बनाया गया, उद्योग, कृषि, विज्ञान, चिकित्सा, इंजीनियरिंग आदि में उच्च अध्ययन के लिए ऋण छात्रवृत्ति प्रदान की गई, उनकी इच्छा थी कि सभी समान हों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़े जातियों  को वरीयता से दिए जाने  बाली छात्रवृत्ति तथा अन्य सहयोग अगड़ी जातियों में भी जो गरीब है असहाय हैं उन्हें भी प्राप्त हो ।

इसीलिए उनके द्वारा बनाए गए ट्रस्ट से अगली जातियों  के  बच्चों को भी छात्रवृत्ति प्रदान करने तथा  ऋण उपलब्ध  कराने की व्यवस्था की गई ।

सर गणेश दत्त के द्वारा बनाए गए ट्रस्ट से गरीब एवं मेधावी छात्रों को छात्रवृत्ति मिलती थी । उससे सभी जाति के मेधावी छात्रों ने बिहार का नाम रोशन किया जिसमें प्रख्यात नेत्र चिकित्सक डॉक्टर  दुखन राम प्रख्यात शिशु रोग विशेषज्ञ लाला सूरज नंदन प्रसाद जैसे लोग भी थे ।


उन्होंने पटना विश्वविद्यालय के विकास में गहरी रुचि ली। उन्होंने अपनी कुछ संपत्ति विश्वविद्यालय को दान कर दी और पूर्व न्यायाधीशों को कुलपति नियुक्त करने की प्रथा को समाप्त करने की दिशा में काम किया;  सच्चिदानंद सिन्हा पटना विश्वविद्यालय के पहले वीसी बने जो न्यायाधीश नहीं थे।


पटना विश्वविद्यालय ने उन्हें 1933 में डॉक्टर होनौरिस कोसा की उपाधि से सम्मानित किया।


उनके दानवीरता के कारण उनके दोनों पुत्र उनसे नाराज भी रहते थे ।   आदर्शवाद की चरम प्रकाष्ठा सर गणेश दत्त सिंह में थी । उनके पुत्र का नाम हाईकोर्ट जज के लिए गया तो उन्होंने गवर्नर को सख्ती से मना कर दिया कि उस उनकी नियुक्ति ना हो । नियुक्ति होने पर इससे मेरे लिए पक्षपात माना जाएगा उनकी मृत्यु के उपरांत ही उनके लड़के जज बने ।


 अपनी पोती की शादी में अपने कोष से पुत्र को  ₹20000 इन्होंने  शपथ पत्र लिखवा कर कर्ज दिया और समय से नहीं लौट आने पर अपने बेटे अरुण को वकालत नोटिस भेजा जिससे पिता पुत्र के संबंध खराब हो गए ।


सामाजिक चेतना के लिए अपना सर्वस्व निछावर करने वाले सर गणेश दत्त ने अपना सारा जीवन जन कल्याण के लिए समर्पित कर दिया था शिक्षा क्षेत्र में अमूल्य योगदान देने वाले स्वयं 17 अट्ठारह वर्षों तक शिक्षा से मरहूम रहे। सर गणेश दत्त जब  ढाई वर्ष के थे  तब उनके पिता डिग नारायण सिंह  का निधन हो गया ; माता मैना कुंवर ने उनका पालन पोषण बड़े लाड प्यार से किया । ऐसी किदबंती है कि वो अपने ससुराल गए थे , उसी समय उनके ससुर जी कोई  टेलीग्राम  प्राप्त हुआ जो अंग्रेजी में लिखा हुआ था ।उनके ससुर जी ने उन्हें टेलीग्राम पढ़ने के लिए दिया वो उसे नहीं पढ़ सके । उसके बाद वह टेलीग्राम पढ़ाने के लिए हरनौत स्टेशन मास्टर के पास गए स्टेशन मास्टर ने भी उन्हें बहुत अपमानित किया ; ससुराल में भी उनका मजाक उड़ाया गया । अपने इस अपमान के कारण उन्होंने दृढ़ निश्चय कर लिया कि मैं अवश्य पढ़ूंगा, और अपने इस निश्चय को उन्होंने पूरा भी किया । उनकी विद्वता से प्रभावित होकर अंग्रेज सरकार ने उन्हें सर की उपाधि प्रदान की।

18 वर्ष की उम्र में जब यह एक संतान के पिता बन चुके थे तब उन्होंने पटना कॉलेजिएट में सातवीं कक्षा में नामांकन कराया; और वहीं से छात्रवृत्ति  तथा रजत पदक के साथ इंटरमीडिएट किया । उसके बाद पटना कॉलेज से बीए तथा लॉ करने के बाद 6 साल तक वकालत किया । उसके बाद कोलकाता हाई कोर्ट में वकालत करने लगे । 1916 ईस्वी में पटना हाई कोर्ट की स्थापना होने पर पुनः पटना लौट कर चले आए और पटना हाई कोर्ट में वकालत करने लगे ।

1921 ईस्वी में बिहार और उड़ीसा के लेजिसलेटिव काउंसिल के सदस्य चुने गए । 2  वर्ष के बाद दरभंगा महाराज को हराकर उन्होंने मंत्री पद को प्राप्त किया । 1922 में बिहार विधान परिषद में आने के बाद 1923 से 1936 तक बिहार उड़ीसा के एवं 1936 में उड़ीसा के अलग होने के बाद भी 1 वर्ष तक बिहार  उड़ीसा के स्वयं शासन एवं अन्य विभाग के मंत्री रहे । उस समय सरकार के मुखिया गवर्नर होते थे , ‌और उनके साथ मिनिस्टर काउंसिल के चार सदस्य होते थे।
तस्वीर : लेखक गोपाल

बाकी मंत्री बदलते रहे लेकिन सर गणेश दत्त लगातार मंत्री पद पर बने रहे । कई बार तो वह मंत्रिमंडल में एकमात्र मंत्री के रूप में रहे । मंत्री के पद पर रहने के दौरान उन्होंने बिहार के विकास के लिए उल्लेखनीय योगदान दिया ।


26 सितंबर 1943 ईस्वी को उन्होंने इस नश्वर शरीर को त्याग कर यश रूपी शरीर को धारण  कर लिया।

PRESENTATION BY ANJ NEWS MEDIA

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